*आप करो तो पुण्य, दूसरा करें तो पाप…. ये कैसा इंसाफ*
_*सरकार को दूध-राशन से ज्यादा नशेड़ियों की चिंता, ये सब ही करना तो लॉकडाउन क्यों?*°_
*✍️बाकलम- बजरंग कचोलिया*
कोरोना वायरस की जद में घिरे देश में जहां एक ओर लॉकडाउन कब तक चलेंगा? यह तय नहीं है वहीं सरकार को लोगों के दूध-राशन से ज्यादा नशेड़ियों की चिंता सता रही है। शायद इसमें राजस्व घाटे की चिंता समाई हो लेकिन उस जनता की नहीं, जो 40 से ज्यादा दिनों से घरों में कैद है।
सरकार के निर्णय ऐसे है कि लोग एक-दूसरे के निकट आते जाएंगे चाहे कभी शराब के बहाने तो कभी ताली-थाली बजाने के बहाने। फिलहाल राज्य सरकारें ही विद्यार्थी व मजदूर लोगों को एक राज्य से दूसरे राज्य में भेजने में लगी है। जबकि जरूरत थी बकौल देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में ‘‘जो जहां है वहीं थमा रहें’’। होना ये चाहिये था कि अपने-अपने राज्य की सरकारें वहीं उनकी जरूरतों की पूर्ति करने या कराने का प्रयास करती ताकि उनके सामने भूख का संकट पैदा नहीं होता। अदला-बदली का खेल कितना महंगा साबित हो सकता है, कोई फिक्र नहीं कर रहा है। चंद हजारों लोगों के लिए मध्यप्रदेश के 8 करोड़ से ज्यादा लोगों का भविष्य क्यों दांव पर लगाया जा रहा है, यह समझ से परे है। स्टूडेंट कोटा या अन्य जगह पढ़ने गए थे तो यहां आकर कौन सी पढ़ाई हो जाएंगी तो फिर उन्हें यहां वापिस लाने का मतलब क्या है? बेहतर तो यह था कि वे जिनके पास रह रहे थे, होस्टल में रह रहे थे या पेइंग गेस्ट थे, उनकी जिम्मेदारी तय कर दी जाती कि वे उनके खाने-पीने की मूलभूत आवश्यकताआें की पूर्ति करेंगे। यही स्थिति मजदूरों के मामले में थी, वे दूसरे राज्यों से आकर यहां कौन सा काम कर लेंगे? आज नहीं तो कल वापिस जाएंगे जैसे पहले गए थे…. तो फिर लाने का मतलब ही क्या रह जाएंगा। बेहतर ये होता कि सरकार ज्यादा से ज्यादा उनकी उनके स्थान पर ही खाने-पीने की मदद कराती ताकि उन्हें परेशानी नहीं झेलना पड़ती और वे पलायन के लिए मजबूर नहीं होते। यह ‘अदला-बदली’ का खेल चंद अमीरजादों के बच्चों या कुछ लोगों को उपकृत करने का तरीका है या संक्रमण को फैलाने की नासमझी…. या जनहित में उठाई अक्लमंदी… यह तो भविष्य में ही पता चलेंगा। अभी तो सब ‘प्रयोग’ है, जिनके परिणाम सब रामभरोसे है। तीन हजार से ज्यादा स्टूडेंट व करीब 54 हजार से ज्यादा मजदूरों को मप्र में लाया गया है और अभी भी यह सिलसिला जारी है। देश के प्रधानमंत्री बोलते ही रह गए कि ‘जो जहां है वहीं रहे’ और उन्हीं के पार्टी के नुमाइंदे सुनने को तैयार नहीं है और देश की जनता से यह भोली उम्मीद की जा रही है कि वह इस बात का ध्यान रखेंगी। नतीजतन वहीं काम अब जनता भी करने लगी है। लोग 40 डिग्री पारे में इंदौर में सीमेंट, कांक्रीट के मिक्सर में जान जोखिम में डालकर जाते पकड़ा रहे है तो ग्वालियर में कोई प्याज की बोरियों में छिपकर….। आखिर ऐसे हालात क्यों बन रहे है, इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया जा रहा है। किसी के लिए बस लग रही है और कोई पैदल ही सैकड़ों कोसों की यात्रा करने को मजबूर है। एक फेरीवाला ठेले से सब्जी बेचने जाएं तो केस दर्ज हो जाता है वहीं प्रशासन द्वारा बिकवाई जा रही सब्जीयां महंगी, खराब व कम होने की शिकायतें देखने, सुनने में आ रही है उसके लिए किसकी जिम्मेदारी तय होगी, किस पर क्या कार्रवाई होगी, तय नहीं है। जो काम सरकार करती है तो सही है, पुण्य है और वहीं काम लोग करते है तो गलत है, अपराध है… पाप है। आखिर ये कैसा इंसाफ है। मृत्यु व मेडिकल मामलों को छोड़कर यदि ‘अदला-बदली’ का ‘खेल’ ही खेलना है तो लॉकडाउन की जरूरत क्या है? क्या इस अदला-बदली से संक्रमण नहीं फैलेंगा? अब शराब दुकानों को खुलवाने की भूल की जा रही है क्या शराब की होम डिलेवरी होगी? लोग तो लॉकडाउन तोड़कर ही ‘ठियों’ तक जाएंगे ना। दूध-राशन की दुकानें खुल नहीं पा रही है, काम-धंधे बंद होने से बेरोजगारी का खतरा बढ़ रहा है, ऐसे में शराब दुकानों को खुलवाना कहांं की समझदारी है। अहम सवाल यह है कि यदि लॉकडाउन लंबा नहीं चलना है तो मजदूरों व स्टूडेंट को इधर से उधर क्यों किया जा रहा है? क्या इनके चक्कर में कोरोना संक्रमण की चेन टूटना आसान होगी?
दुर्भाग्य की बात है कि जिस देश में जनता दूध-राशन के लिए तरस रही है वहां सरकारें तालाबंदी से हो रहे राजस्व घाटे की पूर्ति के लिए शराब दुकानें खोल रही है। लोगों के घरों से निकलने पर पाबंदी है किंतु मजदूरों-स्टूडेंट्स को इधर से उधर करने पर पाबंदी नहीं है। 43 दिन बाद भी लॉकडाउन खत्म होता नजर नहीं आता तो उसके लिए कहीं न कहीं सरकार की अविवेकपूर्ण नीतियां ही जिम्मेदार है, जिसके परिणाम आम जनता भुगत रही है और न जाने कब तक भुगतेंगी।