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जितने घरों में बिजली पहुँचाने का दावा उतनी सामग्री ही नहीं खरीदी गई   राज्य के बाहर से उपकरणों की खरीद में अफसरों की ज्यादा रूचि क्यों? 

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*इंदौर:-बाबा यादव*
मध्यप्रदेश सरकार और बिजली कंपनियां प्रदेश में ‘सौभाग्य योजना’ के तहत 16 लाख से ज्यादा घरों में बिजली पहुँचाने का दावा कर रही है। जबकि, वास्तविकता ये है कि बिजली कंपनियों के पास उतनी सामग्री ही नहीं है कि इतने घरों तक बिजली पहुंचाई जा सके! सरकार का ये दावा इसी सच से गलत साबित होता है कि उतनी सामग्री के टेंडर ही नहीं हुए कि जितना काम होने का प्रचार किया जा रहा है।
मोदी सरकार की और से की गई पहल ‘प्रधानमंत्री सहज बिजली हर घर योजना’ को ‘सौभाग्य योजना’ कहा जाता है। सरकारी कामकाजों में लेटलतीफी और घोटालों के चलते ये योजना ठंडे बस्ते में पड़ी है। इस योजना के लिए सरकार हर राज्य को फंड प्रदान करने वाली थी, जिससे इस योजना का क्रियान्वयन हो सके। योजना के तहत राज्य और केंद्र-शासित प्रदेशों को घर-घर बिजली उपलब्ध कराने के लिए इंस्टॉलेशन का काम 31 दिसंबर 2018 तक करना है। इसके लिए हर राज्य ने आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निविदाएं आमंत्रित की थी। इस मामले में मध्यप्रदेश सरकार का एक अहम मुद्दा सामने आया है! मसला ये है कि एमपीएसईबी ने सेंट्रल विजिलेंस कमेटी (सीवीसी) के दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया। ये निर्देश एम विट्ठल द्वारा सभी सरकारी निविदाओं के लिए दिए गए थे। मध्यप्रदेश भंडार क्रय नियम तथा सेवा उपार्जन नियम 2015 जो कि प्रमुख सचिव मोहम्मद सुलेमान मप्र शासन, द्वारा प्रस्तावित हैं। इसके तहत स्थानीय उत्पादकों से उपकरण की खरीद के संबंध में स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं, जिसका अमलीकरण न होने से योजना के पूरा होने में विलंब हो रहा है। उपकरण की खरीदी का सारा कामकाज स्थानीय उत्पादकों से न करने के बजाए प्रदेश से बाहर के उत्पादकों को दिया जा रहा है। इसके चलते कई सवाल खड़े होते हैं कि जैसे, टेंडर जारी होने के बाद भी ऑर्डर क्यों नहीं दिए गए? क्या राज्य सरकार स्थानीय उत्पादकों के हितो के प्रति गंभीर नहीं है? जब अन्य सभी राज्यों में स्थानीय उत्पादकों को प्राथमिकता दी जाती है तो मध्यप्रदेश में क्यों नहीं?
केंद्र सरकार ने ‘सौभाग्य योजना’ के तहत 45 लाख परिवारों को बिजली उपलब्ध कराने की घोषणा पिछले साल सितंबर में की थी। इस योजना के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने टेंडर तो जारी किए। लेकिन, इसे अफसरों ने निजी फायदों के कारण अटका दिया, जिससे सरकारी निर्देशों का उल्लंघन हो रहा है। ट्रांसफार्मर केबल कंडक्टर के करीब 950 से 1000 करोड़ के टेंड़र की नोडल एजेंसी मध्यप्रदेश विद्युत कंपनी को बनाया गया। लेकिन, वहां इस प्रक्रिया का किस तरह पालन हो रहा है, ये सच्चाई सवालों के घेरे में है।
टेंडर में बताई गई सामग्री की आवश्यकता के अनुसार स्थानीय उत्पादकों से इसका बहुत कम प्रतिशत खरीदा गया! शेष खरीदी राज्य के बाहर के उत्पादकों से की गई है। इसके पीछे क्या मंतव्य है ये समझा जा सकता है। पीवीसी केबल के लिए टेंडर आमंत्रित किया गया था, लेकिन खरीदा नहीं गया! एबी केबल का 60 प्रतिशत खरीदा गया जिसमें से केवल 2 प्रतिशत हिस्सा राज्य सरकार से लिया गया। डिस्ट्रीब्यूशन ट्रांसफॉर्मर आवश्यकता का लगभग आधा खरीदा गया।  उसमें भी केवल 10 प्रतिशत ही राज्य के उत्पादकों से खरीदा गया, शेष 90 प्रतिशत राज्य के बाहर से खरीदा गया। एएएसी कंडक्टर और एनर्जी मीटर्स की भी यही स्थिति है। इन सभी सामग्रियों के लिए आवश्यक पूर्ति व मात्रा निर्धारित की गई थी! बाद में इन सभी का लगभग आधे से भी कम प्रतिशत इस योजना के लिए स्वीकृत हुआ! जो स्वीकृत हुआ, उस सामग्री का नाम मात्र हिस्से की खरीदी मध्यप्रदेश के उत्पादकों से की गई। ये सारे तथ्य साबित करते हैं कि ऐसा क्यों किया जा रहा है?
यदि टेंडर के लिए पूर्व में सामग्रियों की आवश्यक मात्रा निर्धारित की गई थी, तो बाद में उसे कम क्यों कर दिया गया? यदि कम किया भी गया तो लगभग 50 प्रतिशत? क्या पहले किसी निजी फायदे के लिए सामग्री की मात्रा अनुमान अधिक बताई गई थी? टेंडर स्वीकृत होने के बाद भी सामग्री की खरीद का बहुत कम हिस्सा स्थानीय उत्पादकों से लेकर शेष हिस्सा प्रदेश के बाहर से खरीदा गया? क्या राज्य सरकार अपना राजस्व बढ़ाना नहीं चाहती? क्या राज्य सरकार स्थानीय व्यापारियों के हितों का ध्यान नहीं रखती? क्या इन सभी के पीछे अफसरों का कोई निर्जी स्वार्थ है? इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं हैं!

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