*राजनीतिक आत्महत्या*
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*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
विचार का विचार से और व्यवहार का व्यवहार से जब मेल मिलाप न हो, मतभेद फिर भी चल जाए पर मन भेद हो, कड़वाहट भरे कई दशक गुजार दिए हो, सिद्धांत और उद्देश्य भिन्न-भिन्न हो, सक्षमता न इधर हो न उधर हो, जब आत्मसम्मान को कई बार ललकारा गया हो, एक दूसरे पर कीचड़ उछाला गया हो, यहाँ तक कि एक स्वर भी साथ न हो तो बनाया हुआ गीत गाना सहज नहीं होता। ऐसी सूरत में बनाया कोई भी रिश्ता हो चाहे राजनैतिक गठबंधन, वो अपनी मौत मर जाया करता हैं।
सत्य ही तो है, जब वैचारिक और सैद्धांतिक भिन्नता यदि स्वार्थ की भेंट चढ़ने लगे, जहाँ गठबंधन के होने के पीछे तात्कालिक लाभ का श्लेष लगा हो, मंशाएं केवल लाभ अर्जित कर स्वयं को स्थापित करने की हो ऐसे में यह गठबंध स्वतः ही कमजोर नींव पर बुलन्द इमारत खड़ी करने के ख़्वाब जैसा ही है।
महाराष्ट्र की राजनीति में कुछ इसी तरह के हालात निर्मित हो गए है, जो भविष्य के महाराष्ट्र के लिए भी ठीक नहीं और वर्तमान तो संकट में है ही। जिन मतदाताओं ने जिस पार्टी को मत उसकी विचारधारा देखकर दिया है वे मतदाता आज खुद को ठगा हुआ मान रहे होंगे।
क्योंकि सिद्धांतों की आसंदी पर दो धुरविरोधी तत्व का सत्ता के हाथी की सवारी करने एक साथ आ जाना केवल मतदाता के साथ हुए छल को ही दर्शाता हैं।
शिवसेना अपने जन्म से ही हिंदुत्व और धर्म दण्ड के संवाहक के रूप में अपनी पहचान बनाने वाली रही है, बाला साहब ठाकरे के रहते केवल एक ही विचारधारा के पर्याय के रूप में लोगों ने शिवसेना को देखा है, आज एनसीपी या कांग्रेस के साथ केवल सत्ता सुंदरी का भोग करने की खातिर चले जाना शिवसेना की ‘राजनैतिक आत्महत्या’ ही मानी जाएगी।
और इस आत्महत्या के पीछे चाहे पुत्र मोह हो चाहे सत्ता का लोभ किन्तु एक राजनैतिक दल को अपनी विचारधारा के साथ समझौता करना खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारना ही माना जाता हैं।
*हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी लें डूबेंगे*
महाराष्ट्र की राजनीति में अपना अस्तित्व लगभग खो चुकी कांग्रेस और एनसीपी के साथ शिवसेना का चले जाना और गठबंधन से सरकार खड़ी करना खुद का बड़ा नुकसान आमंत्रित करने जैसा है।
राजनीति में इस तरह के गठबंधन पर एक शायरी की वहीं पंक्तियाँ याद आती है कि – ‘ हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी लेकर डूबेंगे’।
वैसे बुद्धिजीवी यह भी कहते है कि ‘राजनीति उस चरित्रहीन वैश्या की तरह है जो हर रात बिस्तर बदलती है’ यानी वारांगना जमात में भी कुछ एक चरित्रहीन होती है जो अपने पेशे के प्रति भी ईमानदार नहीं रहती,उनसे तुलना करना इस बात का प्रमाण है कि यहाँ कब क्या हो जाए समझ से परे है।
नैसर्गिक स्वभाव को छोड़कर जब गठबंधन बनाया जाता है तो दोनों पक्षों को अपने-अपने ‘स्व’ को दरकिनार कर लोकहितार्थ आगे बढ़ना चाहिए, किन्तु जब ‘स्व’ ही हावी रहें, एक पक्ष सदा डराने-धमकाने को अस्त्र बनाकर छलता रहें,अपनी मनमानी करवाता रहें, अपने स्व को संतुष्ट करता रहें तो एक दिन ऐसे तमाम रिश्तें अपना फर्श देख लेते हैं।
धमकी और व्यक्तिगत स्वार्थ की नींव पर बनी कोई भी इमारत कभी बुलन्द नहीं हो पाती यह भी कटु सत्य है। इसीलिए शिवसेना और एनसीपी-कांग्रेस की जोड़ी कब तक चलेगी यह तो भविष्य के गर्भ में ही हैं। किन्तु यह गठबंधन वैचारिक और सिद्धांतवादी नहीं है। इसलिए संशय की सुई सदैव टकटकी लगाएगी।
*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर