*”जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।।मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।”- महान संत कबीर दास जी को उनकी जयंती पर कोटि कोटि नमन।।*
*कबीरदास जी भारतीय समाज सुधारक और प्रेरक के रूप में आज भी प्रासंगिक है*
*कबीरदास जी के दोहे मानव के निराश से भरे हुए जीवन में आशा, उम्मीद और मनोबल से भरकर संयम से सफलता प्राप्त करने की भी प्रेरणा देते हैं*
*लेख:- खेमराज आर्य श्योपुर*
*सहायक प्राध्यापक इतिहास*
कबीरदास जी का जन्म भले ही मध्यकालीन भारत में हुआ हो लेकिन उनके विचार समाज सुधारक के रूप में आज भी प्रासंगिक होने के साथ साथ रूढ़िवाद, सामाजिक धार्मिक आडम्बर, अंधविश्वास, जातिवाद, भाग्यवाद आदि पर उनके द्वारा किए गए व्यंग्यात्मक रूप से कठोर प्रहार करते हैं और वर्तमान समाज और धर्म सुधारकों का मार्गदर्शन करने का काम करते हैं. आज भी अधिकांश समाज सुधारक जो भी कार्य करते हैं कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में कबीरदास जी से अवश्य प्रेरणा लेते हैं और उनके द्वारा कहें गए दोहों और वाक्यों को उदाहरण रूप में अनिवार्य रूप से प्रस्तुत करते हैं. कबीर के दोहे सिर्फ सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था पर ही प्रहार नहीं करते हैं बल्कि मानव को प्रेरित करने वाले भी है. मानव के निराश से भरे हुए जीवन में आशा, उम्मीद और मनोबल से भरकर संयम से सफलता प्राप्त करने की भी प्रेरणा देते हैं.
*जन्म को लेकर मतभेद*
कबीरदास जी के जन्म को लेकर विद्धानों, साहित्यकारों और इतिहासकारों में मतभेद है. उनका जन्म कब हुआ किस जाति और धर्म में हुआ इन सबको लेकर भी विद्धानों में विवाद है. जन्म के पश्चात उनका पालन पोषण जुलाहा परिवार में हुआ. उनके विचारों के ऊपर उनके पालन पोषण और तत्कालीन मध्यकालीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. वे निर्गुण भक्ति धारा के प्रसिद्ध कवि हैं. उन्होंने दोहों की रचना ब्रज, अवधि और भोजपुरी जैसी भाषाओं में की थी. कहा जाता है कि उन्होंने कोई अनौपचारिक रूप से शिक्षा नहीं ली थी. उन्होंने रामानंद जी को अपना गुरु मानकर उनसे दीक्षा ली थी. उनका साहित्य सधुक्कड़ी है. उनके दोहों में अल्हड़पन, व्यंग्यात्मत्मकता, सामाजिक- धार्मिक अंधविश्वास, कुप्रथाओं पर कटाक्ष, मानव को कर्म पर बल देने की बात, सामाजिक असमानता को मिटाकर समता , स्वतंत्रता, और बंधुत्वमूलक समाज की स्थापना करना, सामाजिक और साम्प्रदायिक सौहार्द और सद्भावना की स्थापना आदि पर विशेष बल दिया है. उन्होंने धार्मिक भेदभाव पर कभी भी विश्वास नहीं किया था.
*उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं:-*
बीजक, कबीर ग्रंथावली, अनुराग सागर, सखी, सबद, सबदास, वसंत, सुकनिधन मंगल, पवित्र अग्नि आदि हैं.
उनके प्रमुख विचार और दर्शन को उनके द्वारा रचित दोहों से समझा जा सकता है – जैसे-
*साई इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय,*
*मैं भी भूखा न रहूं, साधू ना भूखा जाय.*
अर्थात:-कबीरदासजी कहते हैं कि इस संसार में जीवन जीने के बस इतना ही धन चाहिए जिससे मेरे परिवार का पालन पोषण सही तरीके से कर सकूँ. मुझे कभी खाली पेट नहीं रहना पड़े और कोई साधु, मेहमान आये तो वो भी मेरे घर से कभी भी भूखा यानि बिना भोजन किये नहीं जाऐ.
*माया मरी न मन मरा, मर मर गया शरीर,*
*आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर.*
अर्थात:-कबीरदासजी जी कहते हैं कि न तो माया मरती है और न ही मन की इच्छाऐ क्योंकि मानव की इच्छाऐ अंनत है जो कभी भी मरती नहीं है, चाहे शरीर मरते रहे हो. आशा यानि उम्मीद, तृष्णा यानि लालसा और लालच कभी भी समाप्त नहीं होते है ये हमेशा जीवित रहती है.
*जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,*
*मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान.*
अर्थात:-कबीरदासजी कहते है कि व्यक्ति को कभी भी साधु यानि गुरु/ शिक्षक की जाति नहीं पूछना चाहिए, यदि पूछना ही है तो उससे उसके ज्ञान यानि शिक्षा के बारे में ही पूछना चाहिए. जिससे हमारे मन में सदगुणों का विकास हो सके. जिस तरह तलवार खरीदने पर तलवार की धार देखनी चाहिए न कि म्यान की ऊपरी सुंदरता और सजावट पर ध्यान देना चाहिए. गुणी व्यक्ति ( साधु/ गुरु) से हमें सिर्फ गुण ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति के गुण ही उसको समाज में सम्मान और प्रतिष्ठा दिलाते है. साधुओं से हमें ज्ञान प्राप्त करते समय
*काल करे सो आज कर, आज करे सो अब,*
*पल में प्रलय होएगी, बहुरी करेगा कब.*
अर्थात:-कबीरदासजी कहते है कि मानव को कल करने वाला काम आज ही कर लेना चाहिए और आज करने वाला काम अभी यानि तत्काल ही कर लेना चाहिए, क्योंकि प्रलय आने में देर नहीं लगती है वो अचानक कभी भी आ सकती है बिना सूचना दिये . अत: काम को समय पर करना चाहिए उसे कभी भी कल पर नहीं टालना चाहिए.
*कबीर हमारा कोई नाहीं, हम काहू के नाहिं,*
*पारे पहुंचे नाव ज्यौं, मीलके बिछुरी जाहा.*
अर्थात:-कबीरदासजी कहते है कि इस संसार में हमारा कोई भी नहीं है और हम भी किसी के नहीं है जैसे ही मृत्यु लोक ( संसार) रूपी नाव से हम पार जाते है जिनके साथ हम रहते है उनसे बहुत दूर चले जाते हैं .सबसे बिछड़ जाते हैं. वो न हमारे साथ जीते हैं और न ही हमारे साथ मरते हैं. सभी सांसारिक वस्तुऐं, रिश्ते- नाते, भाई बंधु, मित्र आदि हमसे बिछड़ जाते हैं. जिनके साथ हम बचपन, जवानी और बुढ़ापा बिताते हैं.
*मल मल धोए शरीर को, धोए न मन का मैल,*
*नहाए गंगा गोमती, रहे बैल के बैल.*
अर्थात:-कबीरदासजी कहते है कि मानव शरीर को मल मल कर यानि रगड़ रगड़कर धोता यानि साफ़ करता है लेकिन जो मैल यानि बुराई मन के अंदर यानि भीतर होती है उसे दूर करने की कभी भी कोशिश नहीं करता है. मन के मैल को साफ करने के लिए मानव गंगा और गोमती जैसी नदियों में जाकर स्नान करने जाता है, लेकिन स्नान करके आने के बाद फिर से सामाजिक आडम्बरों, जातिवाद, लोभ, लालच, राग, द्वेष, नफ़रत आदि को नहीं छोड़ता है और उन्हीं में वापस लिप्त हो जाता हैं.
*हिन्दू कहे मोहि राम पियारा, तुर्क कहे रहमान,*
*आपस में दोउ लड़ी मुए, मरम न कोउ जान.*
अर्थात:-कबीरदासजी कहते है कि हिन्दू कहते है कि उनको राम प्यारे और मुस्लिम कहते है कि हमें रहमान प्यारा है. वे आपस में राम रहमान के नाम पर दोनों ही आये दिन लड़ते झगड़ते रहते है जिससे मानवता मरती और दम तौड़ती है. लेकिन मानव मानव एक बराबर है इस अर्थ को कोई भी समझना नहीं चाहते हैं. यही इन दोनों साम्प्रदायों की सबसे बड़ी समस्या है जो आज भी कायम है और प्रतिदिन, निरंतर विकराल रूप लेती जा रही है. इस समस्या के कारण करोड़ों मानव काल कवलित होकर अपने प्राणों की आहुति दे चुके है, जो आज भी समाप्त होने का नाम नहीं ले रहीं हैं. इसलिए कबीर दास जी के विचार अपनाकर इस नफ़रत, घृणा, हिंसा और वैमनस्य आदि से मुक्ति पा सकते हैं.
*कबीरा खड़ा बाज़ार में मांगे सबकी खैर,*
*ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर.*
अर्थात:-कबीरदासजी कहते है कि मानव को ऐसा व्यवहार करना चाहिए जैसा कि वो बाज़ार में करता है . जिस भी दूकान में पसंद आया माल वो खरीदने के लिए स्वतंत्र होता है उसी प्रकार प्रत्येक मानव को मानव कल्याण की बातें ही करना चाहिए. क्योंकि इस संसार में भी हमें बाज़ार जैसा ही व्यवहार करना चाहिए. न तो कोई हमारा स्थायी मित्र होता है और न स्थायी शत्रु . इसलिए सभी प्राणियों के साथ हमें अच्छा सद्भाव, प्रेमपूर्ण, स्नेहशील मानवीय व्यवहार करना चाहिए.
*पाहन पूजे हरि मिले,, तो मैं पूजूँ पहार,*
*ताते ये चाकी भली, पीस खाय संसार.*
अर्थात:-कबीरदासजी कहते है कि यदि पत्थर पूजने ( मूर्ति पूजा करने से) से किसी को हरि यानि भगवान मिल जाते है तो मैं तो पहाड़ को पूजूँगा . लेकर वास्तविकता में ऐसा सत्य नहीं है . सद्कर्म करने से ही ही जगत में मानव का नाम होता है पूजा, पाठ, यज्ञ,हवन, बलि आदि करने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता हैं. इन सबसे तो चक्की बहुत अच्छी है जिससे पीसे गये आटे को खाकर इस संसार में मानव जीवन की भूख मिट रही हैं और ये संसार चल रहा है.
*इनके अतिरिक्त कबीरदासजी के कुछ और प्रसिद्ध दोहे है जो उनके विचारों की चिंतनशीलता को स्पष्ट रूप से सामने लाते हैं. यथा:-*
*आये है तो जायेंगे, राजा रंक फकीर,*
*इक सिंहासन चढ़ी चले, इक बंधे जंजीर.*
*दोस पराए देखि काई, चला हसंत हसंत,*
*अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत.*
*बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,*
*जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय.*
*काँकर पाथर जोरि के, मसजिद लई बनाय,*
*ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय.*
*बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर,*
*पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर.*
*निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय,*
*बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय.*
अत: हम कह सकते है कि कबीरदासजी जी चिंतनीय विचारशीलता तत्कालीन समय के समाज में भी महत्वपूर्ण थी, आज भी है और भविष्य में भी रहेगी. वे प्रासंगिक और प्रेरक थे, प्रासंगिक और प्रेरक हैं और हमेशा प्रासंगिक और प्रेरक रहेगें क्योंकि मानव समाज में जब तक असमानता, शोषणकारी, अत्याचारी, हिंसक, वैमनस्य आदि वाली व्यवस्था कायम रहेगी कबीरदासजी की विचारधारा विद्रोही, निडरता, सद्भावना, भाईचारा आदि के रूप में सामने आती रहेगी और समाज को मार्गदर्शित करती रहेगी अनंत काल तक.
*खेमराज आर्य*
*सहायक प्राध्यापक इतिहास*
*शा.आदर्श कन्या महाविद्यालय श्योपुर*