*“श्रद्धा वाला श्राद्ध (लघुकथा)”*
*डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका की कलम से DNU Times के लिए विषेश)*
आज सादगी और शुचिता की प्रतिमूर्ति पुण्यशाली मेरी सासु माँ की पुण्यतिथि है। रीता की आँख नम आँसुओं के सागर में डूबी थी। वह मन-ही-मन पुरानी यादों के बारे में सोच रही थी। जब मैं ब्याह के आई तब केवल एक माँ ही थी जिसने मुझे कभी बहू के तराजू पर नहीं तोला, कच्ची उम्र में शादी की हकीकत को वो भली भाँति समझती थी। जीवन को गहराई से समझने के कारण उन्होने मुझे जीवन के सबक धीरे-धीरे और शांतिपूर्ण तरीके से सिखाए। कभी कोई तुलना नहीं, ताना नहीं। शायद उन्होने मुझे सामंजस्य का जो पाठ सिखाया वह प्रायोगिक नहीं व्यवहारिक था। अपनी उदार सोच के कारण वह हमेशा मेरी गलतियाँ माफ कर देती थी। उन्होने परिवार में सभी को अपनी-अपनी स्वतन्त्रता दे रखी थी।
माँ के व्यक्तित्व में हंसमुख स्वभाव, हल्के-फुल्के अंदाज में गंभीर बात कह देना और दूसरों में अच्छाई देखने की महारत थी। माँ की एक ओर खासियत थी की वे अधेड़ उम्र और किशोरावस्था के मनोभावों को भलीभाँति समझती थी। बहू बनने के बावजूद भी रीति-रिवाज कभी मेरे लिए बंधन नहीं थे। वो सब कुछ मेरे स्वीकार करने पर निर्भर था। पर माँ एक शिक्षा पर हमेशा बल देती थी की कुछ रचनात्मक और कलात्मक जरूर करों जिससे तुम कुछ बेहतर महसूस करों। मुझे शुरू से ही अध्ययन में रुचि नहीं थी, हाँ पर कढ़ाई-बुनाई का बेहद शौक था। माँ ने मुझे इसी में बेहतर करने को प्रेरित किया। मैंने भी उनकी बात मानकर मन लगाकर सीखा। कुछ समय बाद यहीं कार्य दूसरों को सिखाना शुरू कर दिया। जब मध्य अवस्था में जीवन की गाड़ी का पहिया डगमगाने लगा तब पति की आज्ञा से दुकान खोली और वृहद स्तर पर यह कार्य किया।
माँ की बदौलत आज खुशहाल जिंदगी यापन कर रहीं हूँ। माँ सदैव सबके सामने मेरा उत्साह बढ़ाती। मेरी छोटी सी अच्छाई को भी जग जाहिर करती। कमियाँ तो मुझमें भी थी परंतु उनकी नजरे तो बेहतर देखने के लिए बनी थी। आज मैं जो कुछ हूँ उसमें माँ की शिक्षाओं को नहीं भूल सकती। छोटी ही सही पर आज मेरी खुद की पहचान है। आज माँ का श्रद्धा वाला श्राद्ध है। मन से यही उदभाव निकल रहें है कि आप जहां भी होंगी प्रसन्न ही होगी और वहाँ से भी अपना आशीर्वाद सभी पर लूटा रही होगी।
*डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)*